सोमवार, 6 मई 2013

भारतीय प्रजातंत्र या "पार्टीतंत्र"

प्रजातंत्र को परिभाषित करते हुए कहा जाता है कि यह जनता का,जनता के द्वारा एवं जनता के लिए शासन है.     "प्रजा का शासन" में "प्रजा"का अर्थ सम्पूर्ण देश की प्रजा से ही है. लेकिन भारतवर्ष में उसका उपयोग उसके इसी अर्थ का बार-बार गुणगान प्रजा के मन को तुष्ट करने,उसे सम्बल देने या स्पष्ट कहूँ तो प्रजा को भ्रमित कर   उसे मूर्ख बनाकर उस पर शासन करने के लिए किया जाता है. प्रजातंत्र  के अर्थ के अनुरूप प्रजातंत्र भारत में न तो है और न ही इसकी सम्भावना ही दिखाई देती है. स्वतंत्र भारत का प्रजातंत्र स्वतंत्र न होकर परतंत्र(पराधीन) होकर रह गया है . प्रत्यक्ष में तो यह प्रदर्शित किया जाता है कि भारत जैसा प्रजातंत्र दुनिया में कहीं नहीं है लेकिन अप्रत्यक्ष में भारतीय प्रजातंत्र सहमा,ठिठका,कमजोर,मजबूर,असहाय अवस्था में पहुंच कर विक्रत हो पार्टियों के आधीन हो गया है .
       भारतीय राजनैतिक पार्टियां कुकरमुत्तों की तरह ऊगती जा रही हैं . ये पार्टियां क्षेत्रीय हों या राष्ट्रीय अपना आधार बढाने के लिए सदस्य बनाने का अभियान चलाती हैं . पार्टियों के सदस्य बनने के पश्चात सदस्यगण अपनी अपनी पार्टी के प्रति वफादारी की शपथ लेते हैं . प्रत्यक्ष में दिखावे के लिए सभी देश हित में अपना बलिदान देने के लिए तत्पर दिखाई देते हैं लेकिन वास्तव में अब कोई विरला ही होगा जो देश के प्रति निष्ठा,समर्पण एवं वफादार होने का जज्बा अपने मन में रखता होगा ,जो रखता होगा उसे किनारे लगाकर ठिकाने लगा दिया जाता है . अधिकांश लोग स्वार्थवश ही सदस्य बनते हैं  स्वयं का आधार मजबूत होते ही  "मैं" पर ध्यान केन्द्रित हो जाता है और फिर शुरू होता है एक नया खेल मैं और मेरी पार्टी ,देश जाये भाड में.
क्योंकि स्वार्थ की पूर्ति पार्टी के माध्यम से ही होनी है.और यदि यह कहा जाये तो अतिश्योक्ति न होगी कि आजकल पार्टियां शासन करने की भावना रखने वाले स्वार्थी लोगों का समूह मात्र बनकर रह गईं हैं.
 अब देश पार्टियों एवं उनके बढते सदस्यों की संख्या में बटता चला जा रहा है. कई स्थानों में विभिन्न पार्टियों के सदस्यों के मध्य कटुता बढती जा रही है इसीलिए सांप्रदायिकता,जाति भेद के बाद अब पार्टी भेद भी दिखाई देने लगा है. "इससे ऐसा भी प्रतीत होता है कि आगे जाकर स्थति इतनी विकट भी हो सकती है कि पार्टियों के प्रति समर्पण व निष्ठा  से एक पार्टीगत विशिष्ट वर्ग की उत्पत्ति न हो जाये. और व्यक्ति अति उत्शाह में या चापलूशीवश  अपनी जाति, धर्म,गोत्र आदि बदल दें या त्याग दें. यथा व्यक्ति अपना नाम राजेन्द्र 'शर्मा' के स्थान  पर राजेन्द्र 'कांग्रेस' एवं जगदीश 'दुबे' के स्थान पर जगदीश 'भाजपा' न लिखने लगें . आगे-आगे यह विभाजन इस हद तक पहुँच जाये कि ये एक दूसरे के वर्ग में शादियां ही न करें .
                                                                                                             वास्तव में पार्टियों के सदस्यों की सदस्यता का यह विस्तार प्रजातंत्र के लिए घातक हो सकता है क्योंकि सदस्यों की सोच विचार पार्टी हित और सिर्फ पार्टी हित तक ही सीमित होता है यह सब स्वार्थवश ही होता है .देश भक्त तो कोई सिरफिरा ही होता है.देश में स्वतंत्र सोच के व्यक्ति अर्थात प्रजातंत्र की प्रजा नहीं बचेगी सिर्फ पार्टियों के सदस्यों का समूह होगा जो अपनी पार्टी के साथ ही खडा दिखाई देगा. स्वतंत्र सोच विचार के लोगों का होना प्रजातंत्र की रक्षा व देश और समाज हित के लिए आवश्यक है .इनकी संख्या जितनी ज्यादा होगी उतना ही प्रजातंत्र सुरक्षित रहेगा .आज के भारत में प्रत्येक राजनैतिक पार्टी का सदस्य अपने पार्टी के एजेंडे के साथ खडा दिखाई देता है .समाज व देश के विघटन या दुर्दशा की उन्हें फिक्र नहीं .हर हाल में मौत प्रजातंत्र की ही होनी है .
                                                                                                                प्रत्येक राजनैतिक पार्टी की ओर से उनके सदस्य व समर्थकों को विभिन्न प्रकार के प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष लाभ समय-समय पर प्राप्त होते रहते हैं और मूल रूप से वर्तमान में अधिकांश व्यक्ति इस लाभ हेतु ही पार्टियों से जुडते और वफादारी प्रगट करते हैं . भ्रष्टाचार का मूल कारण यहीं से आरम्भ होता है . अनैतिक व अवैध कार्यों की उत्पत्ति व पोषण भी यहीं से होता है. अपने समर्थकों के आधार को मजबूत व स्थिर बनाने के लिए क्या-क्या नहीं किया और होने नहीं दिया जाता यह जन साधारण से छुपा नहीं है लेकिन कोई बोलकर अपनी और अपने परिवार की जान खतरे में क्यों डालेगा.
             प्रजातंत्र की रक्षा के लिए सुसुप्त पडे समाज को गहरी नींद से जगना व जगाना होगा क्योंकि सत्ता का रस पीने वाले स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाडी मारने के लिए स्वमेव ही कोई कठोर कदम उठाकर कानूनी सुधार करेंगे ऐसी आशा करना व्यर्थ ही है वे स्वयं पर कोई अंकुश बर्दास्त नहीं कर सकते . अन्ना हजारे का क्या हाल हुआ सारी दुनिया ने देखा . इस देश की जनता प्रजातंत्र का अर्थ नहीं समझती और न ही समझना ही चाहती है . प्रजातंत्र अपनी रक्षा के लिए अपनी प्रजा से त्याग मांगता है. लेकिन राजनेताओं और सरकारों ने जनता को भौतिकता में इतना डुबो दिया है कि त्याग नाम से ही जान निकल जाती है . शराब की खुली छूट है खूब पियो और इतने मदहोश रहे आओ कि सरकारें क्या गलत कर रहीं हैं इसका न तो भान रहे और न ही ध्यान रहे और फिर निर्विघ्न टी.वी. व फिल्मों की ऐसी नग्नता में खो जाओ जिसे देखकर विदेशी भी शर्मा जायें. यह सब बडे ही प्रयोजित तरीके से किया जा रहा है . सरकार चलाने वालों का सीधा इशारा है कि सरकार जनता के खाने-पीने ,उठने-बैठने बोलने और मौज-मस्ती में बाधा नहीं बनेगी जनता उनके शासन चलाने में बाधा न डाले.
                    इस हेतु उन कानूनी सम्भावनाओं को खोजना होगा जो यह निर्धारित करने में सहायक हों कि कितनी निर्धारित आबादी पर कितनी पार्टियाँ होनी चाहिए ,कितनी आबादी पर किसी पार्टी की सदस्य संख्या कितनी निर्धारित हो .किसी भी पार्टी का किसी भी प्रकार सदस्य बनते समय प्रत्येक सदस्य अपनी आर्थिक स्थति का विवरण दे और प्रतिवर्ष विवरणी भी भरकर चुनाव आयोग को देवे . जिसके मन आ रहा है वही पार्टी बनाकर तैयार खडा है. सारा देश पार्टियों एवं उनके सदस्यों में बंटकर रह जायेगा . प्रजा रहेगी नहीं तो प्रजातंत्र भी नहीं रहेगा बल्कि वह "पार्टी-तंत्र" हो जायेगा ............आपके सुझावों का स्वागत है. ....काव्य खण्ड में पढें "सिसकता प्रजातंत्र"

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