नहीं छेडना भइया को तुम,
लगा खेल में घरघूला के.
मनोयोग से बना रहा वह,
घर,आंगन,बगिया धूला के.
रचना अपनी उसको प्यारी,
जग में जिस विधि सबको.
स्रष्टि खेल से करते ममता,
भगवन भी,तब दोष न उसको.
विघ्न किया यदि तुमने उसका,
याद रखो तुम खैर न होगी.
लौंच तान कर बिगडेगा जब,
झंझट बढकर आफत होगी.
नियम तोडकर भगवन के कब,
कौन सुखी नर रह है पाता.
दुख रोगों से दण्डित होकर,
म्रत्यु- दण्ड फिर वह है पाता.
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केल्यानन्द.....शैशवकाल के पश्चात् मानव-जीवन का दूसरा चरण बाल्य काल प्रारम्भ होता है.शिशु में लौकिक
द्रष्टि से अहँ भाव का उन्मीलन प्रारम्भ होता है, और इसीलिए बालक के कार्यों में केलि(खेल) का ही प्राधान्य
रहता है. यदि अहँ-सुषुप्त स्थिति का नाम 'ब्रह्म' उपयुक्त है तो बाल्य कालीन इस अहँ-उन्मीलन शक्ति को 'ईश्वर'
कहना ही ठीक जँचता है. तभी तो स्रष्टि को ईश्वर का खेल,केलि,क्रीडा या लीला कहा जाता है.